Friday, January 11, 2008

शायद तुम समज पाते

जाने कितने ख्वाभ
जले होंगे नैन में
बनके सुर्मोसी वह राख
सजे होंगे नैन में

अक्सर धरते हैं
नज़र जब लहून आयें
हमने थो देखी हैं लहून को
सिम्थ्ते हुवे इन नैन मैं

सडकों पे रहते थे जब हम
हर भाग कि शिक़ायत ते जब हम

न जाने कैसे बस जाता
वह चांद इन नैन में

लगता हैं फिर सुबह होगी
अपनी भी अब कोई जुबह होगी
सदा जिनकी वफ़ा सी हैं
लायेंगे उन्हें अपनी नैन में

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